सोने
की चिड़िया कभी, कहलाता
था देश
आँधी आई लोभ की, सोना बचा न शेष।
आँधी आई लोभ की, सोना बचा न शेष।
सोना बचा न शेष, पुनः अपनों ने लूटा।
भरे
विदेशी कोष,
देश
का ताला टूटा।
हुई
इस तरह खूब,
सफाई
हर कोने की
ढूँढ
रही अब डाल,
लुटी
चिड़िया सोने की।
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जो रहते परदेस में, मन में बसता देश।
जोड़ा
अंतर्जाल ने, दुविधा
रही न शेष।
दुविधा
रही न शेष,
एक है कोना कोना
यही विश्व का मंच, यहीं सब साझा
होना।
कहे ‘कल्पना’ हाल, दिलों का सुनते-कहते
मन
में बसता देश, विदेशों
में जो रहते।
-कल्पना रामानी
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